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देवता: अश्विनौ ऋषि: अवस्युरात्रेयः छन्द: पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः काण्ड:

आ꣢ नो꣣ र꣡त्ना꣢नि꣣ बि꣡भ्र꣢ता꣣व꣡श्वि꣢ना꣣ ग꣡च्छ꣢तं यु꣣व꣢म् । रु꣢द्रा꣣ हि꣡र꣢ण्यवर्तनी जुषा꣣णा꣡ वा꣢जिनीवसू꣣ मा꣢ध्वी꣣ म꣡म꣢ श्रुत꣣ꣳ ह꣡व꣢म् ॥१७४५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

आ नो रत्नानि बिभ्रतावश्विना गच्छतं युवम् । रुद्रा हिरण्यवर्तनी जुषाणा वाजिनीवसू माध्वी मम श्रुतꣳ हवम् ॥१७४५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ꣢ । नः꣣ । र꣡त्ना꣢꣯नि । बि꣡भ्र꣢꣯तौ । अ꣡श्वि꣢꣯ना । ग꣡च्छ꣢꣯तम् । यु꣣व꣢म् । रु꣡द्रा꣢꣯ । हि꣡र꣢꣯ण्यवर्तनी । हि꣡र꣢꣯ण्य । व꣣र्तनीइ꣡ति꣢ । जु꣣षाणा꣢ । वा꣣जिनीवसू । वाजिनी । वसूइ꣡ति꣢ । माध्वी꣢꣯इ꣡ति꣢ । म꣡म꣢꣯ । श्रु꣣तम् । ह꣡व꣢꣯म् ॥१७४५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1745 | (कौथोम) 8 » 3 » 12 » 3 | (रानायाणीय) 19 » 3 » 3 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर वही विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अश्विना) योगशास्त्र के अध्यापक और योग-विधियों के प्रशिक्षक ! (रत्नानि) योगसिद्धि के रमणीय ऐश्वर्यों को (बिभ्रतौ) धारण करनेवाले (युवम्) तुम दोनों (नः) हम योग-जिज्ञासुओं के पास (आगच्छतम्) आओ। हे (रुद्रा) रोदक योग-विघ्न आदि को दूर करनेवाले, (हिरण्य-वर्तनी) तेजस्वी मार्ग का अवलम्बन करनेवाले (जुषाणा) प्रीति करनेवाले (वाजिनीवसू) योगाभ्यास-क्रिया ही जिनका धन है ऐसे, (माध्वी) मधुर प्राणविद्या को जाननेवाले योगाध्यापक और योगप्रशिक्षको ! तुम दोनों (मम) मुझ योग-जिज्ञासु की (हवम्) पुकार को (श्रुतम्) सुनो ॥३॥

भावार्थभाषाः -

वे ही योगाध्यापक और योग-प्रशिक्षक योगविद्या देने में सफल होते हैं, जो स्वयं योग-सिद्धियों से युक्त और योगविद्या के धुरंधर होते हैं ॥३॥ इस खण्ड में जगदीश्वर, जगन्माता और योगाभ्यास के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ उन्नीसवें अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अत पुनस्तमेव विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अश्विना) अश्विनौ योगाध्यापकयोगप्रशिक्षकौ ! (रत्नानि) रमणीयानि योगसिद्ध्यैश्वर्याणि (बिभ्रतौ) धारयन्तौ (युवम्) युवाम् (नः) योगजिज्ञासूनस्मान् (आगच्छतम्) आयातम्। हे (रुद्रा), रुद्रौ, रुदं रोदकं योगविघ्नादिकं द्रावयतो यौ तौ, (हिरण्यवर्तनी) तेजस्विमार्गावलम्बिनौ, (जुषाणा) जुषाणौ प्रीतिं कुर्वन्तौ, (वाजिनीवसू) वाजिनी बलवती योगाभ्यासक्रिया एव वसु धनं ययोस्तौ, (माध्वी) मधुमयप्राणविद्याविदौ योगाध्यापकप्रशिक्षकौ ! युवाम् (मम) योगजिज्ञासोः (हवम्) आह्वानम् (श्रुतम्) शृणुतम् ॥३॥२

भावार्थभाषाः -

तावेव योगाध्यापकयोगप्रशिक्षकौ योगविद्याप्रदाने सफलौ जायेते यौ स्वयं योगसिद्धिसम्पन्नौ योगविद्याधुरंधरौ भवतः ॥३॥ अस्मिन् खण्डे जगदीश्वरस्य जगन्मातुर्योगाभ्यासस्य च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति।